Monday, September 26, 2016

लड्डू वाली कहानी

दोस्तों नमस्कार,

आज एक लोक कथा लेकर प्रस्तुत हूँ. यह एक भोजपुरी लोक कथा है जिसका मैं हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रही हूँ.

एक सेठ जी थे. उनका लड्डूओं का कारोबार था. उनके लड्डू दूर दूर तक मशहूर थे. उन्होंने एक साधारण लड्डू वाले की हैसियत से अपना काम शुरू किया था लेकिन उनकी उनकी कारीगरी और बनाए हुए बेहतरीन लड्डूओं की बदौलत उनका काम बढ़ता चला गया और उनकी गिनती रईसों में होने लगी. फिर भी वे बड़े ज़मीनी आदमी थे और दौलत का नशा उनपर नहीं चढ़ पाया. सेठ जी के चार लड़के थे. उन्होंने अपने चारो लडको को लड्डू बनाने की कला में पारंगत कर रखा था. बेटे भी पिता के नक्शेकदम पर चल रहे थे.

सेठ जी की एक आदत थी. अक्सर वह लड्डू बाँधने का काम करने वक़्त गुनगुनाया करते थे - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदिया झड़ें... बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरे...."

सेठ जी की देखा देखी उनके सारे नौकर और उनके लड़के भी यह गीत अक्सर गुनगुनाते रहते थे. सेठ जी यह देख देख कर मुस्कुराते थे. यह अलग बात थी कि इसका मतलब कोई नहीं जानता था.

एक दिन सेठ जी ने तीर्थ करने की सोची. उन्होंने अपने चारो लडको को बुलाया और उन्हें समझाया - "मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ. मेरे पीछे घर और कारोबार का ध्यान रखना. और चाहे कितना भी कुछ भी क्यों न हो जाए. आपस में मेल रखना और दुसरो की बात पर कान मत देना."
यह कहकर सेठ जी चले गए.

सेठ जी के जाने के बाद लडको ने खूब अच्छे से सब कुछ संभाला. चार जनों ने मिलकर काम किया तो कारोबार और भी बढ़ने लगा. यह देखकर उन्होंने अपना काम बाँट लिया कि दो भाई लड्डू बनायेंगे और दो भाई हिसाब किताब करेंगे. कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन चारो में काम को लेकर तनातनी होने लगी. लड्डू बनाने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है और ये तो बस किताब कलम लेकर सारा दिन गद्दी तोड़ते है. हिसाब किताब करने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है - माल पहुँचाना, बिक्री का हिसाब रखना, मोल जोल करना. ये दोनों तो बस मजे से लड्डू बनाते है. आधा खाते है आधा दूकान पर पहुंचाते है.
बात बढ़ी, लड़ाई झगडे तक पहुँच गयी. मार पीट हुई और सबने गुस्से में काम धंधा बंद कर दिया. फैसला हुआ कि पिता के तीर्थ से लौटते ही बंटवारा कर लिया जाएगा.
काम ठप्प हुआ तो ग्राहक भी बिखरने लगे. अच्छा ख़ासा कारोबार बर्बाद होने लगा.

चारों एक दिन इसी तरह बैठकर मक्खी मारते हुए बंटवारे का इंतज़ार कर रहे थे. कि अचानक सबसे छोटे भाई को पिता का  गाया हुआ गीत याद आया - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदियाँ झड़ें.... बुंदियाँ झड़ें... तो लड्डूआ मरें..."

छोटे भाई को गाते देख बाकी भाई भी सुर मिलाने लगे. तभी अचानक बड़े भाई ने सोचा कि आखिर पिताजी यह गीत हमेशा क्यों गाते थे. उसने अपने भाइयो से इस बाबत पूछा. जब भाइयों ने गीत के बोलों पर ध्यान दिया तब जाकर उन्हें इस गीत की महत्ता समझ में आई - 'लड्डूआ लड़ें ... तो बुंदियाँ झड़ें...'  मतलब जब लड्डू आपस में लड़ते है यानि टकराते है तो बूंदी झड़कर गिरती है. 'बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ  मरें...' मतलब लड्डू बूंदी से ही बनते है और जब आपस में टकराने के कारण बूंदी झडती है तो इससे उनका खुद का विनाश होता है. और इसतरह लड्डू बर्बाद हो जाते है.




अब जाकर भाइयों के समझ में आया कि उनके पिताजी गीत के ज़रिये ही उन्हें मिल जुल कर रहने की सीख देते थे. उन्हें अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदगी हुई. उन्होंने फिर कभी आपस में न लड़ने की ठानी  और उसी वक़्त कामकाज दुबारा शुरू कर दिया. सेठ जी के लौटने तक कारोबार फिर से पहले जैसा हो गया. और सेठ जी लौटकर अपने बेटो का आपस में प्रेम देखकर गदगद हो उठे.


~ लोक कथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा देना हमारे समाज की परंपरा रही है. यह लोक कथा उसी का एक हिस्सा है. ~ 

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